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महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के सीएम पद पर शपथ ग्रहण से पहले शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के गठबंधन 'महा विकास अघाड़ी' के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में सेक्युलरिज्म पर जोर के बाद इस पर चर्चा फिर तेज है। सीएमपी की प्रस्तावना में लिखा गया है, 'इस गठबंधन के साझेदार संविधान के सेक्युलर मूल्यों को बनाए रखने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। देश और राज्य के हित के मुद्दों पर खासतौर से देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने को ध्यान में रखते हुए शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस भविष्य में मिलकर एक-दूसरे से सलाह करेंगे और तभी नतीजे पर निकलेंगे।'

इसी के साथ एक बार फिर सेक्युलर शब्द पर चर्चा शुरू हो गई है। सेक्युलर या पंथ निरपेक्ष शब्द को लेकर भारतीय राजनीति में हमेशा घमासान रहा है। इसे जानने से पहले हमें यह जानने की जरूरत है कि भारत के पंथ निरपेक्ष या सेक्युलर होने का क्या अर्थ है? एनसीआरटी के अनुसार पंथ निरपेक्ष होने का अर्थ है कि भारत नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन कोई धर्म आधिकारिक नहीं है। सरकार सभी धार्मिक मान्यताओं और आचरणों को समान सम्मान देगी। 

भारत के संविधान की प्रस्तावना जब तैयार की गई तो शुरुआत में इसमें सेक्युलर शब्द नहीं था। साल 1976 में इमरजेंसी के दौरान प्रस्तावना में संशोधन किया गया, जिसमें 'सेक्युलर' शब्द को शामिल किया गया। इस पर एक पक्ष का मानना है कि संविधान में इससे पहले भी पंथ निरपेक्षता का भाव शामिल था। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और समानता का अधिकार दिए गए हैं। 42वें संशोधन में 'सेक्युलर' शब्द को जोड़कर सिर्फ इसे स्पष्ट किया गया।

दूसरे पक्ष का यह मानना है कि संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' जैसे शब्दों का जुड़ना और संविधान में मौलिक कर्तव्यों का शामिल होना एक सकारात्मक बदलाव का उदाहरण है। यही कारण है कि ये बदलाव आज भी हमारे संविधान का हिस्सा हैं, लेकिन इन चुनिंदा सकारात्मक प्रावधानों से कभी भी आपातकाल और उसकी आड़ में हुए संविधान संशोधनों की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती थी।
 


कब-कब विवादों में रहा 'सेक्युलरिज्म'

वाजपेयी सरकार ने भी साल 1998 में संविधान की समीक्षा के लिए कमेटी बनाई। तब इसका विरोध भी हुआ कि यह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करने की कोशिश है। पंथनिरपेक्षता और आरक्षण को खत्म करने की कोशिश है। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने उस वक्त एक लंबे लेख में केशवानंद भारती केस का जिक्र करते हुए लिखा कि सेक्युलरिज्म भारत की संस्कृति में है।

क्या है केशवानंद भारती केस :

केरल सरकार ने भूमि सुधार को लेकर दो कानून बनाए। इन कानूनों की मदद से केरल सरकार राज्य में चल रहे मठों पर अपना पूरा नियंत्रण कर उस पर कई तरह की पांबदियां लगाने की तैयारी में थी। सरकार के इस कदम का असर केरल में चल रहे मठों पर पड़ना तय था। ऐसे में केरल के इडनीर नाम के हिंदू मठ के मुखिया केशवानंद भारती ने सरकार को चुनौती देने के लिए कोर्ट पहुंच गए। इसके लिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 26 का सहारा लिया। अनुच्छेद 26 के अनुसार भारत के हर नागरिक को धर्म-कर्म के लिए संस्था बनाने, उसकी देख-रेख करने के साथ ही चल और अचल संपत्ति जोड़ने का अधिकार देता है। केशवानंद भारती का तर्क था कि सरकार द्वारा लाए गए नए भूमि सुधार कानून उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, कई राजनीतिक विशलेषकों का मानना है कि केशवानंद की लड़ाई केवल केरल सरकार से नहीं, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी थी। 13 जजों की बेंच जिसकी अगुवाई चीफ जस्टिस एसएम सीकरी कर रहे थे, ने मामले की सुनवाई की। बेंच ने फैसला सुनाया तो सात जजों ने अपना निर्णय सरकार के खिलाफ सुनाया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संविधान का बुनियादी ढांचा नहीं बदला जा सकता है। बुनियादी ढांचा यानी देश का संविधान सबसे ऊपर है। फैसले ने ये सुनिश्चित किया कि देश में कानून का शासन और न्यायपालिका की आजादी रहेगी। इसे 'बेसिक स्ट्रक्चर थ्योरी' भी कहा जाता है।

साल 2015 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी देश को 'सेक्युलर' शब्द के दुरुपयोग के खिलाफ चेताया था। उन्होंने कहा था कि देश में 'सेक्युलर' शब्द का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है, इसे बंद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी के शब्द सेक्युलर का औपचारिक अनुवाद पंथनिरपेक्ष होता है, धर्मनिरपेक्ष नहीं। राजनाथ सिंह साल 2015 में शीतकालीन सत्र के पहले दिन संविधान के प्रति प्रतिबद्धता जताने के लिए हो रही दो दिन की विशेष चर्चा शुरू कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि संविधान में 42वां संशोधन कर उसकी प्रस्तावना में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द डाले गए थे। संविधान का मसौदा तैयार करने वाले समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर इसके पक्ष में नहीं थे। इसलिए शुरूआत में संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों को नहीं डाला गया था।

साल 2015 में ही उप-राष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए अपने भाषण में कहा था कि भारत सिर्फ इसलिए सेक्युलर नहीं है, क्योंकि यह हमारे संविधान में है। भारत सेक्युलर है क्योंकि सेक्युलरिज्म हमारे 'डीएनए' में है।

साल 2017 में कर्नाटक के कोप्पल जिले में को ब्राह्मण युवा परिषद के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए भाजपा नेता अनंत कुमार हेगड़े ने कहा कि कुछ लोग कहते हैं कि 'सेक्युलर' शब्द संविधान में है तो आपको मानना पड़ेगा, क्योंकि यह संविधान में है, तो हम इसका सम्मान करेंगे। लेकिन यह आने वाले समय में बदलेगा, संविधान में पहले भी कई बदलाव हुए हैं, अब हम हैं और हम संविधान बदलने आए हैं।

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि सेक्युलरिस्ट लोगों का नया रिवाज आ गया है। अगर कोई कहे कि वो मुस्लिम है, ईसाई है, लिंगायत है, हिंदू है तो ठीक है। क्योंकि उसे पता है कि वो कहां से आया है। लेकिन जो खुद को सेक्युलर कहते हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें क्या कहूं। अनंतकुमार हेगड़े के इस बयान का उत्तर केशवानंद भारती केस में कोर्ट के फैसले द्वारा दिया जा चुका है कि संविधान का बुनियादी ढांचा नहीं बदला जा सकता है।
 


42वें संशोधन के दामन से जुड़े विवाद :

42वें संशोधन का समर्थन ना करने वालों का मानना है कि भारतीय संविधान की कई धाराओं से धर्मनिरपेक्षता 42वें संशोधन के पहले से ही समाहित है। धारा 14 देश ने नागरिकों को कानून की नजर में एक समान होने का प्रावधान देती है। धारा 15 के तहत धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव करने पर रोक है। 

लेकिन कई लोगों को लगता है कि आज लगभग 70 साल बीत जाने के बाद भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के साथ जोड़ने की जगह समुदायों को अलग कर रहा है।

इसमें बहुसंख्यकों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि ज्यादातर कानून, पाबंदियां उनकी धार्मिक मान्यताओं और संस्थाओं पर लगाए जाते हैं। इसके अलावा समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का लागू न होना, आदिवासी इलाकों मे जीवन यापन करने वाले लोगों में धर्मांतरण को बढ़ावा देना और अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को संरक्षण देना भी शामिल है।

42वें संशोधन में हुए अहम बदलाव :


  • संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' 'धर्मनिरपेक्ष' एवं 'एकता और अखंडता' आदि शब्द जोड़े गए। 

  • सभी नीति निर्देशक सिद्धांतों को मूल अधिकारों पर सर्वोच्चता सुनिश्चित की गई।

  • इसके अंतर्गत संविधान में दस मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया।

  • इसके द्वारा वन संपदा, शिक्षा, जनसंख्या- नियंत्रण आदि विषयों को राज्य सूचि से समवर्ती सूची के अंतर्गत कर दिया गया।

  • इसके अंतर्गत निर्धारित किया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद और उसके प्रमुख प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार कार्य करेगा।

  • इसने संसद को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से निपटने के लिए कानून बनाने के अधिकार दिए और सर्वोच्चता स्थापित की।

 



महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के सीएम पद पर शपथ ग्रहण से पहले शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के गठबंधन 'महा विकास अघाड़ी' के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में सेक्युलरिज्म पर जोर के बाद इस पर चर्चा फिर तेज है। सीएमपी की प्रस्तावना में लिखा गया है, 'इस गठबंधन के साझेदार संविधान के सेक्युलर मूल्यों को बनाए रखने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। देश और राज्य के हित के मुद्दों पर खासतौर से देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने को ध्यान में रखते हुए शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस भविष्य में मिलकर एक-दूसरे से सलाह करेंगे और तभी नतीजे पर निकलेंगे।'


इसी के साथ एक बार फिर सेक्युलर शब्द पर चर्चा शुरू हो गई है। सेक्युलर या पंथ निरपेक्ष शब्द को लेकर भारतीय राजनीति में हमेशा घमासान रहा है। इसे जानने से पहले हमें यह जानने की जरूरत है कि भारत के पंथ निरपेक्ष या सेक्युलर होने का क्या अर्थ है? एनसीआरटी के अनुसार पंथ निरपेक्ष होने का अर्थ है कि भारत नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन कोई धर्म आधिकारिक नहीं है। सरकार सभी धार्मिक मान्यताओं और आचरणों को समान सम्मान देगी। 

भारत के संविधान की प्रस्तावना जब तैयार की गई तो शुरुआत में इसमें सेक्युलर शब्द नहीं था। साल 1976 में इमरजेंसी के दौरान प्रस्तावना में संशोधन किया गया, जिसमें 'सेक्युलर' शब्द को शामिल किया गया। इस पर एक पक्ष का मानना है कि संविधान में इससे पहले भी पंथ निरपेक्षता का भाव शामिल था। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और समानता का अधिकार दिए गए हैं। 42वें संशोधन में 'सेक्युलर' शब्द को जोड़कर सिर्फ इसे स्पष्ट किया गया।

दूसरे पक्ष का यह मानना है कि संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' जैसे शब्दों का जुड़ना और संविधान में मौलिक कर्तव्यों का शामिल होना एक सकारात्मक बदलाव का उदाहरण है। यही कारण है कि ये बदलाव आज भी हमारे संविधान का हिस्सा हैं, लेकिन इन चुनिंदा सकारात्मक प्रावधानों से कभी भी आपातकाल और उसकी आड़ में हुए संविधान संशोधनों की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती थी।
 












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