मेरा बचपन बेहद गरीबी और मुश्किलों में बीता है। मैं हिमाचल प्रदेश के मनाली की रहने वाली हूं। मेरे माता-पिता मनाली में ही एक ढाबा चलाते थे। मेरे बचपन का ज्यादातर हिस्सा ढाबे में काम करके ही बीता। हालांकि, उस दौरान मेरी पढ़ाई नहीं छूटी। मैं स्कूल से आने के बाद अपने माता-पिता के साथ ढाबे में काम किया करती थी।
ठंड के दिनों में हालात और खतरनाक हो जातेहैं, मनाली में ठंड के दौरान तापमान काफी नीचे चला जाता है। कड़ाके की ठंड में हम काम करते रहते, क्योंकि हमें अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी करनी होती थीं। कई बार तो हमें रात को ढाबे के अंदर ही परिवार के साथ फर्श पर सोना पड़ता था। स्कूल में पढ़ाई के दौरान हमें अपनी इच्छानुसार स्पोर्ट्स में भाग लेना होता था।
आर्थिक समस्याओं के चलते मैं अक्सर कबड्डी के लिए अपना नाम लिखाती थी। इसकी वजह यह थी कि इस खेल में न तो अलग से ड्रेस खरीदने की जरूरत होती थी न ही जूते। ऐसे में कबड्डी पर ज्यादा कुछ खर्चा नहीं था। यहां बस शारीरिक मजबूती और तेज दिमाग के साथ फुर्ती चाहिए होती थी। स्कूल में दाखिला लेते ही मैंने ठान लिया था कि कबड्डी में करियर बनाना है।
स्कूल में खेलते-खेलते कबड्डी में मेरी अच्छी खासी पहचान बन गई। मेरी बहन कल्पना भी कबड्डी की अच्छी खिलाड़ी थी। लेकिन ढाबे पर माता-पिता की मदद करने के लिए उसको अपना खेल छोड़ना पड़ा। लेकिन स्कूल से शुरू हुआ मेरा सफर आगे तक जारी रहा। धीरे-धीरे मेरी मेहनत ने असर दिखाया और वर्ष 2009 में मेरा चयन धर्मशाला स्थित स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के प्रशिक्षण केंद्र में हो गया।
वहां कुछ माह प्रशिक्षण लेने के बाद मेरा ट्रायल हुआ और मैं राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बन गई। इसके बाद मुझे प्रोफेशनल कबड्डी खिलाड़ी के तौर पर प्रशिक्षण दिया गया। धर्मशाला में मेरे प्रशिक्षण और रहन-सहन का सारा जिम्मा सरकार ने उठाया। उसके बाद मैं अपनी मंजिल की तरबढ़ती चली गई। कुछ साल राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के बाद जल्द ही मेरा चयन अंतराष्ट्रीय टीम में हो गया। लेकिन दुर्भाग्य ने मेरा साथ अब भी नहीं छोड़ा था।
वर्ष 2011 में मुझे पेट की एक गंभीर बीमारी ने घेर लिया। डॉक्टरों ने बताया कि मेरे पाचन तंत्र में इंफेक्शन है। इसके चलते मैं तकरीबन छह माह तक बिस्तर पर पड़ी रही। इस दौरान कई बार मुझे लगा कि अब मेरा करियर खत्म हो जाएगा, शायद ही मैं मैदान पर खेल सकूं। पर धीरे-धीरे बुरा वक्त बीत गया, मैं दोबारा मैदान में थी। इस बार मेहनत ज्यादा करनी पड़ी। करीब छह माह के कड़े प्रशिक्षण के बाद बाद मेरा चयन वर्ष 2012 की एशियन कबड्डी चैंपियनशिप में भारतीय टीम के लिए हो गया।
मैं ऑलराउंडर थी, लेकिन मेरे कोच ने मुझसे कहा कि गेम के किसी खास क्षेत्र में महारत हासिल करो, तो इसके बाद मैं फुल-टाइम डिफेंडर बन गई। हमारी टीम ने अच्छा प्रदर्शन किया और स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया। वर्ष 2014 के एशियन खेल में हमने दोबारा स्वर्ण पदक जीता। स्वर्ण पदक जीतने के बाद मेरी जिंदगी बदल गई थी। सरकार से मुझे इनाम के तौर पर आर्थिक मदद मिली, जिसके बाद मैं ढाबा छोड़कर अपने परिवार के साथ मनाली के पास एक फ्लैट लेकर रहने लगी।
मेरा छोटा भाई अब अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर रहा है। वह मेरे और परिवार के लिए गर्व व भावुकता का पल था, जब मैंने अपने माता-पिता के लिए छत का इंतजाम किया। मेरी बहन और माता-पिता ने हमेशा मेरा सपोर्ट किया। वे चाहते थे कि मैं अपने सपने को पूरा करूं। मैं उनके समर्थन के बिना भारतीय टीम के लिए कभी नहीं खेल पाती।
विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।
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